आप को गर्दिश-ए-अय्याम से डर लगता है

आप को गर्दिश-ए-अय्याम से डर लगता है

और हमें इश्क़ के अंजाम से डर लगता है

चश्म-ए-साक़ी के इशारे में निहाँ क्या शय थी

हसरत-ए-बादा-ए-गुलफ़ाम से डर लगता है

ज़ेर-ए-लब उन के तबस्सुम से सुकून माँग तो लूँ

अपनी ही जुरअत-ए-नाकाम से डर लगता है

नाम जो आठ-पहर विर्द-ए-ज़बाँ रहता था

अब ये वहशत है उसी नाम से डर लगता है

हज़रत-ए-ख़िज़र से थी राहबरी की ख़्वाहिश

अब उसी ख़्वाहिश-ए-नाकाम से डर लगता है

मंज़िलें इश्क़ की बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर तय कीं हैं

अब ये आलम है कि हर गाम से डर लगता है

क्यूँ वज़ीफ़ा सहर-ओ-शाम किया तर्क 'सफ़ीर'

क्यूँ ख़्याल-ए-सहर-ओ-शाम से डर लगता है

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