रात
जंगल घना
वो गरजती हवा
दो दरख़्तों की कोंपल भरी डालियाँ
एक से एक इस तरह
टकरा गईं
जैसे बरसों जुदाई में जलते बदन
बात पूरी सुनो तुम तो शर्मा गईं
आग पैदा हुई
पेड़ जलने लगे
शोर बरपा हुआ
हर तरफ़ धुआँ ही धुआँ
और फिर
न पूछो कि फिर क्या हुआ
राख के ढेर को
अब मुनासिब नहीं छेड़ना