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सुबुक मुझ को मोहब्बत में ये कज-उफ़्ताद करता है - मोहम्मद अाज़म कविता - Darsaal

सुबुक मुझ को मोहब्बत में ये कज-उफ़्ताद करता है

सुबुक मुझ को मोहब्बत में ये कज-उफ़्ताद करता है

जो मैं हरगिज़ न करता वो मिरा हम-ज़ाद करता है

बिखर कर भी उसी को ढूँढती हैं हर तरफ़ आँखें

जो मुझ को इक निगह में इक से ला-तादाद करता है

हुई हैं शोर-ए-दिल में ग़र्क़ ताबीरें सदाओं की

मगर इतनी ख़बर है कोई कुछ इरशाद करता है

क़यामत है जो अब ये ख़ुफ़्तगान-ए-ख़ाक-ए-दिल जागें

कोई इस कोहना वीराने को फिर आबाद करता है

कहा हो कुछ कभी मुझ से तो ऐ चारागरो जानूँ

मैं क्या कह दूँ दिल-ए-बीमार किस को याद करता है

सरामद इश्क़ है पाता है कोई दिल नसीबों से

फिर अपने वास्ते माशूक़ ख़ुद ईजाद करता है

बुरा कहना मुझे उस का वज़ीफ़ा है तो होने दो

वो ख़ुद को यूँ मिरे आसेब से आज़ाद करता है

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