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सब है ज़ेर-ए-बहस जो ज़ाहिर है या पोशीदा है - मोहम्मद अाज़म कविता - Darsaal

सब है ज़ेर-ए-बहस जो ज़ाहिर है या पोशीदा है

सब है ज़ेर-ए-बहस जो ज़ाहिर है या पोशीदा है

और नज़र से अपनी पर्दा आँख का बोसीदा है

जब मिले तूमार-ए-आगाही से फ़ुर्सत देखना

किन तहों में रम्ज़-ए-अक़्ल-ए-ना-रसा पोशीदा है

कौन सा आँसू हो मक़्बूल-ए-बुना-गोश-ए-क़ुबूल

किस सदफ़ को क्या ख़बर है उस में क्या पोशीदा है

बे-अमाँ इस दर्जा वहशत-ख़ेज़ है सई-ए-जुनूँ

यक जहाँ सहरा हमारे ज़ेर-ए-पा पोशीदा है

हम मुसाफ़िर ऐसी मंज़िल के हुए जिस के लिए

रास्ता ज़ाहिर है लेकिन फ़ासला पोशीदा है

सरसर-ए-हस्ती में ज़िंदा है अभी तक एक लौ

शोला-ए-दिल ज़ेर-ए-दामान-ए-हवा पोशीदा है

एक आँधी ख़ाक तक मेरी उड़ा कर ले गई

मैं कहाँ हूँ साहिबो ये माजरा पोशीदा है

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