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मोहब्बत चाहती है जिस को अफ़्साना बना देना - मोहम्मद अाज़म कविता - Darsaal

मोहब्बत चाहती है जिस को अफ़्साना बना देना

मोहब्बत चाहती है जिस को अफ़्साना बना देना

उसे काफ़ी नहीं होता है दीवाना बना देना

पर-ए-गुल से जुदा हम ने न देखा बर्ग-ए-बुलबुल को

नज़र में आ गया सूरत को बे-मअ'ना बना देना

हुआ था दिल जो ख़ाली दो घड़ी को हम न समझे थे

कि हो जाएगा ये काबे को बुत-ख़ाना बना देना

किसी ने भी न देखा इज़्तिराब-ए-तिश्नगी मेरा

अगर देखा तो बस शीशे को पैमाना बना देना

नहीं अब चाहता ये वहशी-ए-बे-ख़ानुमाँ तेरा

कि आना और ख़ाक-ए-पा से काशाना बना देना

किसी इक तेग़-ए-जौहर-दार को फ़ाज़िल जिला दे कर

उसे आसान है बस्ती को वीराना बना देना

हम अपनी जान से देते तुम्हें सदक़ा मोहब्बत का

मगर तुम ने तो चाहा इस को जुर्माना बना देना

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