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इस बे-ख़ुदी में रुख़्सत ख़ुद्दारी हो गई है - मोहम्मद अाज़म कविता - Darsaal

इस बे-ख़ुदी में रुख़्सत ख़ुद्दारी हो गई है

इस बे-ख़ुदी में रुख़्सत ख़ुद्दारी हो गई है

मुश्किल हुई जो आसाँ दुश्वारी हो गई है

इक दाग़-ए-दिल पे भी अब अपना नहीं तसर्रुफ़

ये सब ज़मीन गोया सरकारी हो गई है

इस बोझ की न पूछो गठरी है दिल ये जिस को

जितना किया है हल्का कुछ भारी हो गई है

शिकवा नहीं सितम का पर अब ये देखता हूँ

तुम को सितमगरी की बीमारी हो गई है

कोई तलब न हसरत कुछ शौक़ है न आदत

अब तेरी याद मेरी लाचारी हो गई है

लहजे की पैरवी से तपता है 'मीर' कोई

वो 'मीर' ख़त्म जिस पर फ़नकारी हो गई है

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