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हम आदम-ज़ाद जो हैं रोज़-ए-अव्वल से कमी है ये - मोहम्मद अाज़म कविता - Darsaal

हम आदम-ज़ाद जो हैं रोज़-ए-अव्वल से कमी है ये

हम आदम-ज़ाद जो हैं रोज़-ए-अव्वल से कमी है ये

कि जो है मौत उस को जानते हैं ज़िंदगी है ये

जो मंज़र है सो आ कर मुख़्तलिफ़ है सब की आँखों में

फिर आँखें देखती हैं क्या तमाशा दीदनी है ये

यहाँ दश्त-ए-तलब में एक मैं हूँ और सिवा मेरे

सराबों को निचोड़े जा रही इक तिश्नगी है ये

अँधेरे दिल ने की थी आरज़ू उस के उजालों की

मिरी आँखें ही छीने ले रहा है रौशनी है ये

उस इक बे-मेहर से तर्क-ए-तअल्लुक़ पर नदामत क्या

गवारा कर लिए कैसे सितम शर्मिंदगी है ये

बहुत देखा है तुम ने हुस्न-ए-सन्नाई मगर उस को

जो देखो तो कहोगे वाह-वा बरजस्तगी है ये

कशिश मर्दुम की ये है या नुमूद-ए-नज्म-ए-असवद है

वफ़ूर-ए-नूर है या इंतिहा-ए-तीरगी है ये

मुसाफ़िर दाएरे के हम गुमान-ए-इस्तक़ामत में

बहुत आगे निकल आए हैं यानी वापसी है ये

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