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शुऊर-ए-ज़ात थोड़ा सा दिल-ए-नादाँ में रखते हैं - मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी कविता - Darsaal

शुऊर-ए-ज़ात थोड़ा सा दिल-ए-नादाँ में रखते हैं

शुऊर-ए-ज़ात थोड़ा सा दिल-ए-नादाँ में रखते हैं

जमाल-ए-आगही जहल-ए-ख़िरद-अफ़्शाँ में रखते हैं

चमन कैसा बयाबाँ क्या सिमट आएगी ये दुनिया

जुनूँ के दम से इतनी वुसअतें दामाँ में रखते हैं

नज़र के सामने रहता है अक्स-ए-गर्दिश-ए-दौराँ

हम आईना को दिल के रौज़न-ए-ज़िंदाँ में रखते हैं

हुजूम-ए-ग़म में यादों के निहाँ-ख़ाने महक उठ्ठे

शगूफ़े लाला-ज़ारों के दिल-ए-वीराँ में रखते हैं

हमारे सोज़-ए-दिल से नूर बरसाती हैं वो आँखें

हम अपनी शम्अ ताक़-ए-अबरू-ए-जानाँ में रखते हैं

हमारी हर नज़र उन की नज़र में डूब जाती है

हम अपना तीर उन के तीर के पैकाँ में रखते हैं

कोई दस्तक कोई आहट कोई झोंका कोई ख़ुशबू

'फ़रीदी' दिल को बस ज़िंदा इसी अरमाँ में रखते हैं

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