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मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और - मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी कविता - Darsaal

मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और

मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और

मंज़िल के क़रीब आ के बहकते हैं क़दम और

मारे हुए हैं कश्मकश-ए-वहम-ओ-यकीं के

टूटे हुए हर बुत से तराशे हैं सनम और

ये बात समझते ही नहीं हज़रत-ए-नासेह

सिलता है अगर चाक तो खुलता है भरम और

तदबीर का हर नक़्श दिल-आवेज़ है लेकिन

है कातिब-ए-तक़दीर का अंदाज़-ए-रक़म और

जज़्बात पे मोहरें न लगी हैं न लगेंगी

होती है ज़बाँ बंद तो चलता है क़लम और

शायद ये सिला तर्क-ए-तलब का है 'फ़रीदी'

बढ़ती ही गई वुसअ'त-ए-दामान-करम और

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