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हवा से बादा निचोड़ें कली को जाम करें - मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी कविता - Darsaal

हवा से बादा निचोड़ें कली को जाम करें

हवा से बादा निचोड़ें कली को जाम करें

सुकू-त-रंग-ए-चमन से ज़रा कलाम करें

हमें तो कोई भी पहचानता नहीं है यहाँ

निगाह किस से मिलाएँ किसे सलाम करें

ज़माना इस पे तुला है ख़िरद की बात रहे

हमें ये ज़िद है कि ऊँचा जुनूँ का नाम करें

फ़ज़ा है गोश-बर-आवाज़ चुप हैं अह्ल-ए-नवा

अब इस अधूरी कहानी को हम तमाम करें

तुम्हारे जाम को पहले नज़र से छलका दें

फिर अपने होश में आ कर तवाफ़-ए-जाम करें

किसी ग़ज़ाल में भी अब नहीं रम-ए-वहशत

हम अपने सेहर-ए-तमन्ना से किस को राम करें

ख़ुलूस-ए-दिल का सिला सोज़ आरज़ू का गुहर

इसी गुहर 'फ़रीदी' चराग़-ए-शाम करें

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