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बे-शौक़-ए-तलब बे-ज़ौक़-ए-नज़र बे-रंग थी उन की गुल-बदनी - मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी कविता - Darsaal

बे-शौक़-ए-तलब बे-ज़ौक़-ए-नज़र बे-रंग थी उन की गुल-बदनी

बे-शौक़-ए-तलब बे-ज़ौक़-ए-नज़र बे-रंग थी उन की गुल-बदनी

ये कोहकन-ओ-मजनूँ की नज़र शीरीं भी बनी लैला भी बनी

देखे हुए उन को देर हुई हर नक़्श अभी तक ताज़ा है

बे-गाना-वशी मस्ताना-रवी जादू-नज़री शीरीं-सुख़नी

हम अपने ही घर में रहते थे जब तेरी नज़र में रहते थे

अब रोज़ सताती है हम को ऐ दोस्त वतन में बे-वतनी

फूलों में झलकते हैं चेहरे शाख़ों पे गुमाँ आग़ोश का है

कुछ ऐसी बसी है नज़रों में गुल-पैरहनी नाज़ुक-बदनी

नज़रों में न बे-मेहरी की अदा बातों में न वो ख़ुशबू-ए-वफ़ा

कितने ही दिलों को तोड़ गई ज़ालिम की जबीं की बे-शिकनी

उस बज़्म-ए-तरब में हँसने पर मजबूर हमें क़िस्मत ने किया

फूलों से जहाँ शो'ले लपकें साग़र में घुले हीरे की कनी

शो'लों में निखरते हैं जौहर क़िस्मत पे 'फ़रीदी' तंज़ न कर

ग़म ऐसी ही ने'मत है जिस को पाते हैं यहाँ क़िस्मत के धनी

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