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अंदाज़-ए-सुख़न मस्लहत-आमेज़ बहुत है - मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी कविता - Darsaal

अंदाज़-ए-सुख़न मस्लहत-आमेज़ बहुत है

अंदाज़-ए-सुख़न मस्लहत-आमेज़ बहुत है

फिर भी ये अदा तेरी दिल-आवेज़ बहुत है

आशुफ़्ता-मिज़ाजी पे मिरी तंज़ न कीजे

अंदाज़-ए-जहाँ भी तो जुनूँ-ख़ेज़ बहुत है

हम से वो मिला है तो खुले दिल से मिला है

दुनिया को शिकायत है कम-आमेज़ बहुत है

हम उस से जुदा हो के भी यूँ झूम रहे हैं

जैसे कि ये लम्हा भी तरब-ख़ेज़ बहुत है

इक बार भी थर्राई न लौ शम-ए-वफ़ा की

सुनते थे ज़माने की हवा तेज़ बहुत है

तुम अब्र-ए-करम बन के ज़रा आ के तो देखो

ख़ाक-ए-दिल-ए-बर्बाद भी ज़रख़ेज़ बहुत है

कुछ और शिकायत तो नहीं तेरी नज़र से

ये बात अलग है कि ज़रा तेज़ बहुत है

अब देखिए किस रंग में ये शाम ढलेगी

कुछ गर्दिश-ए-हालात की लय तेज़ बहुत है

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