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तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है - मियाँ दाद ख़ां सय्याह कविता - Darsaal

तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है

तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है

हम को मोहर्रम और रक़ीबों को ईद है

शायद हमारे क़ौल पे हब्लुल-वरीद है

हम से ख़ुदा क़रीब है काबा बईद है

गुज़रा मह-ए-सियाम न क्यूँ पंजा-ए-शराब

ख़ाली का चाँद ये नहीं है माह-ए-ईद है

शुग़्ल अपना बादा-ख़्वारी है और ताक सिलसिला

पीर-ए-मुग़ाँ भी एक हमारा मुरीद है

दिल ले चुके हैं जान भी अब माँगते हैं वो

बैठे हैं बिगड़े और तक़ाज़ा शदीद है

चल खोल क़ुफ़्ल आबला-ए-पा के ऐ जुनूँ

हर इक ज़बान-ए-ख़ार बयाबाँ कलीद है

वहशत में पैरहन की उड़ीं धज्जियाँ तमाम

तन पर क़बा-ए-दाग़ है सो नौ-ख़रीद है

सुनता हूँ रोज़-ए-हश्र न होगी उसे नजात

जो सय्यदों से बुग़्ज़ रखे वो यज़ीद है

ऐसा मज़ा भरा है तबीअत में फ़क़्र का

गंज-ए-शकर है सीना मिरा दिल फ़रीद है

'सय्याह'-ए-बे-नवा हूँ जहाँ-गर्द है लक़ब

गर्दिश में चर्ख़-ए-पीर भी मेरा मुरीद है

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