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नहीं मिलता दिला हम को निशाँ तक - मियाँ दाद ख़ां सय्याह कविता - Darsaal

नहीं मिलता दिला हम को निशाँ तक

नहीं मिलता दिला हम को निशाँ तक

मकाँ ढूँड आए उस का ला-मकाँ तक

बना हर मू-ए-तन ख़ार-ए-मुग़ीलाँ

सताया जोश-ए-वहशत ने यहाँ तक

हमारी जान के पीछे पड़ा है

दिल-ए-नादाँ को समझाएँ कहाँ तक

रवाँ शब को हुआ क्या नाक़ा-ए-रूह

नज़र आई न गर्द-ए-कारवाँ तक

ज़मीं पे ज़लज़ला आया तो पहुँचा

मिरे नालों का ग़ौग़ा आसमाँ तक

मिले है दिल को ज़ौक़-ए-बोसा-ए-लब

मज़ा है वर्ना हर शय का ज़बाँ तक

जो रखते थे दिमाग़ अपना फ़लक पर

ज़मीं पर अब नहीं उन का निशाँ तक

जलाया शम्अ सा उस शोला-रू ने

गए घुल सोज़-ए-ग़म से उस्तुखाँ तक

जहाँ की सैर की 'सय्याह' हम ने

न पहुँचे पर सुख़न के क़द्र-दाँ तक

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