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जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका - मियाँ दाद ख़ां सय्याह कविता - Darsaal

जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका

जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका

फाँस की तरह खटकता है जिगर में तिनका

नेज़ा-बाज़ी पे हमें अपनी न धमका ऐ तुर्क

हम समझते हैं इसे अपनी नज़र में तिनका

आतिश नाला-ए-बुलबुल ये चमन में भड़की

न बचा नाम को सय्याद के घर में तिनका

ख़ार-मिज़्गाँ को नज़र भर के न देखा मैं ने

पड़ गया उड़ के मिरे दीदा-ए-तर में तिनका

सुन के आमद तिरी आँखों से उठा लेते हैं

देखते हैं जो पड़ा राहगुज़र में तिनका

गिर्द उस बहर-ए-सफ़ा के मैं फिरा करता हूँ

रहता है गर्दी में जिस तरह भँवर में तिनका

आह-ए-सोज़ाँ ने जलाए तिरे जंगल 'सय्याह'

नाम को भी न रहा एक शजर में तिनका

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