तस्बीह से ग़रज़ है न ज़ुन्नार से ग़रज़
तस्बीह से ग़रज़ है न ज़ुन्नार से ग़रज़
दिल को फ़क़त है यार के दीदार से ग़रज़
इस्लाम ओ कुफ़्र से तो यहाँ कुछ नहीं हुसूल
हम को नहीं है काफ़िर ओ दीं-दार से ग़रज़
ख़ुल्द-ए-बरीं से काम न तौबा की छाँव से
हम को है तेरे साया-ए-दीवार से ग़रज़
आया हूँ सैर को तिरे दीदार के लिए
ज़ाहिद से कुछ ग़रज़ है न मय-ख़्वार से ग़रज़
'मिस्कीं' सुनोगे तुम कि तह-ए-दाम मर गया
रखता था दिल जो मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से ग़रज़
(719) Peoples Rate This