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किसी का एक है दुश्मन तो दोस्त-दार है एक - मिस्कीन शाह कविता - Darsaal

किसी का एक है दुश्मन तो दोस्त-दार है एक

किसी का एक है दुश्मन तो दोस्त-दार है एक

हमारा हिज्र अदू एक वस्ल यार है एक

जहाँ में शादी ओ ग़म से नहीं है दूर कोई

ख़िज़ाँ अदू है मिरा एक और बहार है एक

ख़ुशी नसीब नहीं हम को ता-ब-हश्र कोई

हज़ार रंज हैं एक और ये दिल-फ़िगार है एक

बिसान-ए-मर्ग-ओ-हयात अहल-ए-दिल को आलम में

हमेशा एक है दिल जिस पे ग़म सवार है एक

मिला है हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद जिन को आलम में

फ़िदा जो एक है उन पर तो जाँ-निसार है एक

रह-ए-वफ़ा में ये है हाल आशिक़ों का मुदाम

ख़राब एक है शोरीदा-सर तो ख़ार है एक

मिलोगे हम से जो 'मिस्कीं' दुई को दूर करो

शुमार एक है गर दम है दो पे तार है एक

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