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सुब्ह का मंज़र है लेकिन गुल कोई ताज़ा नहीं - मिस्दाक़ आज़मी कविता - Darsaal

सुब्ह का मंज़र है लेकिन गुल कोई ताज़ा नहीं

सुब्ह का मंज़र है लेकिन गुल कोई ताज़ा नहीं

रू-ए-गुलशन पर कहीं भी ओस का ग़ाज़ा नहीं

टूट कर हम चाहने वालों से जब बिछड़ेंगे आप

हम ही हम बिखरेंगे लेकिन मिस्ल-ए-शीराज़ा नहीं

ग़ार वालों की तरह निकला है वो कमरे से आज

उस को इस दुनिया की तब्दीली का अंदाज़ा नहीं

कुछ न कुछ कहते तो रहते हैं यहाँ हम लोग जी

फिर भी इस शहर-ए-बुताँ में कई आवाज़ा नहीं

इस इमारत के मुक़द्दर की लकीरों में कहीं

खिड़कियाँ तो हैं मगर 'मिस्दाक़' दरवाज़ा नहीं

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