वो ज़ेब-ए-शबिस्ताँ हुआ चाहता है
वो ज़ेब-ए-शबिस्ताँ हुआ चाहता है
ये मजमा' परेशाँ हुआ चाहता है
बुरी हो गई शोहरत-ए-कू-ए-जानाँ
कोई ख़ाना-वीराँ हुआ चाहता है
तिरे ग़म ने सब काम आसाँ किए हैं
कि मरना भी आसाँ हुआ चाहता है
चले आते हैं सैर करते हुए वो
गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ हुआ चाहता है
न देखा करो तुम कि अब आइना भी
मिरी चश्म-ए-हैराँ हुआ चाहता है
निकाला है ये रंग 'हाली' ने 'सालिक'
कि हर शे'र दीवाँ हुआ चाहता है
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