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वाइ'ज़ मिलेगी ख़ुल्द में कब इस क़दर शराब - मिर्ज़ा क़ुर्बान अली बेग सालिक कविता - Darsaal

वाइ'ज़ मिलेगी ख़ुल्द में कब इस क़दर शराब

वाइ'ज़ मिलेगी ख़ुल्द में कब इस क़दर शराब

पानी के बदले पीते हैं ऐ बे-ख़बर शराब

आमद में उस की मस्त हुए कुछ ख़बर नहीं

साक़ी है कौन जाम कहाँ और किधर शराब

उस क़ुल्ज़ुम-ए-गुनाह में डूबा हुआ हूँ मैं

जिस में है एक मौजा-ए-दामान-ए-तर शराब

मस्ती में उन को लग गई लौ और ग़ैर की

देनी शब-ए-विसाल न थी इस क़दर शराब

इक़रार-ए-वस्ल और वो मस्त-ए-ग़ुरूर-ए-नाज़

आया है पी के तू कहीं ऐ नामा-बर शराब

'सालिक' मिले जो बज़्म में उस की तो लुत्फ़ है

वर्ना पिया ही करते हैं हम अपने घर शराब

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