Warning: session_start(): open(/var/cpanel/php/sessions/ea-php56/sess_e78a7f4a501275ec95fbf0f7d50319bb, O_RDWR) failed: Disk quota exceeded (122) in /home/dars/public_html/helper/cn.php on line 1

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/cpanel/php/sessions/ea-php56) in /home/dars/public_html/helper/cn.php on line 1
बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है - मिर्ज़ा सलामत अली दबीर कविता - Darsaal

बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है

बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है

मरयम दरूद-ए-ख़्वाँ है ये किस की जनाब है

शान-ए-ख़ुदा अयाँ है ये किस की जनाब है

दहलीज़-ए-आसमाँ है ये किस की जनाब है

कुर्सी ज़मीं से लेती है गोशे पनाह के

बैठा है अर्श साए में इस बारगाह के

हूरान-ए-हिश्त-ए-ख़ुल्द हैं इक एहतिमाम को

दार-उस-सलाम दर पे झुका है सलाम को

सजदा यहीं हलाल है बैत-उल-हराम को

सूरज निसार सुब्ह को है चाँद शाम को

देखा करे खड़े हुए इस आस्ताँ को

याँ बैठने का हुक्म नहीं आसमान को

सहरा-ए-लामकाँ की फ़िज़ा इस से तंग है

जन्नत का नाम उस की बुजु़र्गी का नंग है

फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा के साया का हर जा पे ढंग है

याँ धूप में भी काग़ज़-ए-अबयज़ का रंग है

ज़ाइर को इस हरीम के ऐश-ओ-निशात है

उस का बिछौना रहमत-ए-हक़ की बिसात है

इफ़्फ़त पुकारती है मुक़ाम-ए-हिजाब है

शैऊ, जनाब-ए-फ़ातमा की ये जनाब है

हव्वा ओ आसिया का ये बाहम ख़िताब है

ज़ोहरा के रोब-ओ-दबदबा से ज़ोहरा आब है

जारी है मुँह जारिया-ए-फ़ातिमा हैं हम

मख़दूमा-ए-जहाँ की वो इक ख़ादिमा हैं हम

हर ख़िश्त-ए-रोज़ा दफ़्तर-ए-हिक्मत की फ़र्द है

मादूम याँ ज़माने का हर गर्म-ओ-सर्द है

याँ ग़म का है गुबार न कुलफ़त की गर्द है

पर साहिब-ए-रवाक़ के पहलू में दर्द है

हम तुम ये जानते थे कि सोती हैं फ़ातिमा

इस की ख़बर नहीं है कि रोती हैं फ़ातिमा

शान-ए-ख़ुदा है सल्ल-ए-अली शान-ए-फ़ातिमा

हैदर की जा-नमाज़ है दामान-ए-फ़ातिमा

रोज़ा हर एक रोज़ है मेहमान-ए-फ़ातिमा

कहती है ईद-ए-फ़ित्र में क़ुर्बान-ए-फ़ातिमा

बहर-ए-नमाज़ क़ुव्वत की तक़लील करती हैं

तस्बीह हक़ में आप को तहलील करती हैं

मदहोश हैं फ़ज़ाइल-ए-ज़ोहरा में चशम-ओ-गोश

ख़ुद बे-लिबास और ख़लायक़ की पर्दा-पोश

उस्रत से बे-हवास मगर याद-ए-हक़ का होश

फ़ाक़ा से चेहरा ख़ुश्क पे दरिया-दिली का जोश

मुस्तग़नी-उल-मिज़ाज हैं आलम-ए-नवाज़ हैं

ज़ेवर से मिसल-ए-ज़ात-ए-ख़ुदा बे-नियाज़ हैं

बाग़-ए-फ़दक जो ग़सब सितम गार ने किया

तप को मुती-ए-फ़ातिमा ग़फ़्फ़ार ने किया

हाकिम हर एक दर्द का मुख़तार ने किया

ज़ोहरा ने जो कहा वो हर आज़ार ने किया

सादिक़ से इस बयान की सेहत-ए-हुसूल है

रौशन दुआ-ए-नूर से शान-ए-बतूल है

रुख़ जलवा-गाह-क़ुदरत-ए-परवरदिगार है

दिल राज़दार-ए-ख़लवत-ए-परवरदिगार है

सर जाँ-निसार-ए-रहमत-ए-परवरदिगार है

तन ख़ाकसार-ए-ताअत-ए-परवरदिगार है

तस्बीह से अयाँ शरफ़-ए-फ़ातिमा हुआ

ज़िक्र-ए-ख़ुदा का फ़ातिमा पर ख़ातिमा हुआ

बाग़ों में ख़ुल्द नहरों में कौसर है इंतिख़ाब

क़िब्लों में काअबा मसहफ़ों में आख़िरी किताब

तारों में आफ़ताब-ए-मुबीं फूलों में गुलाब

सब औरतों में फ़ातिमा मर्दों में बूतिराब

शाह-ए-ज़नान-ए-वक़्त मसीहा की माँ हुईं

ज़ोहरा हर एक अस्र में शाह-ए-ज़नाँ हुईं

उलफ़त ख़ुदा के बाद हबीब-ए-ख़ुदा की है

मंसब के आगे ये भी दिला किबरिया की है

पर्वा न फ़ाक़ा की न शिकायत जफ़ा की है

ईज़ा फ़क़त जुदाई-ए-ख़ैर-उल-वरा की है

आब-ओ-ग़िज़ा की फ़िक्र न सोने का ध्यान है

आँखों में शक्ल बाप की रोने का ध्यान है

कुछ नोश कर लिया जो किसी ने खिला दिया

लेकिन अज़ा में कुछ ना ग़िज़ा ने मज़ा दिया

ग़श में किसी ने आ के जो पानी पिला दिया

क़तरा पिया और आँखों से दरिया बहा दिया

निसबत है किस से फ़ातिमा के शोर-ओ-शैन को

ज़ोहरा के बाद रोई हैं ज़ैनब हुसैन को

सुन कम क़ल्क़ ज़्यादा क़लक़ से फ़ुग़ाँ सिवा

सीने से दिल तो दिल से जिगर नातवाँ सिवा

रोने से चशम-ए-पाक हुई ख़ूँफ़िशाँ सिवा

तप वो कि नब्ज़ों से तपिश-ए-इस्तिख़्वाँ सिवा

जब फ़ातिमा ने हा-ए-पिदर कह के आह की

हिलने लगी ज़रीह रिसालत-ए-पनाह की

फ़िज़्ज़ा कनीज़-ए-फ़ातिमा करती है ये बयाँ

घर से हुआ जनाज़ा पयंबर का जब रवाँ

बैठी की बैठी रह गई मख़दूमा-ए-जहाँ

इक हफ़्ता रात दिन रहें हुजरे में नीम-जाँ

देखा जो मैं ने झांक के तो आँख बंद है

आवाज़ आह आह की दिल से बुलंद है

बेटे पुकारते हैं ये लिल्लाह बाहर आओ

अम्माँ न इतना रोओ गुलामों पे रहम खाओ

नाना कहाँ गए हैं बुला लाएँ हम बताओ

हम कुरते फाड़ते हैं नहीं तो गले लगाओ

नाना के बाद हाय ये बे-क़दर हम हुए

सब की तरफ़ हुज़ूर के भी प्यार कम हुए

हम-साइयाँ ये कहती थीं ऐ आशिक़-ए-पिदर

दीदार-ए-मुस्तफ़ा तो है मौक़ूफ़ हश्र पर

उन के इवज़ तो अपनी ज़ियारत से शाद कर

हुजरे में पीटती है ये कह कर वो नौहा-गर

अब मैं हूँ और हर एक हिक़ारत है साहिबो

मुझ बे-पिद्र की ख़ाक-ए-ज़ियारत है साहिबो

अल-क़िस्सा बाद-ए-हफ़्ते के दिन आठवाँ हुआ

और नील पोश ज़ुल्मत-ए-शब से जहाँ हुआ

याँ महर-ए-बुर्ज हुजरा-ए-मातम अयाँ हुआ

पर इस तरह कि मुर्दा का सब को गुमाँ हुआ

ये शक्ल हो गई थी अज़ा में रसूल की

पहचानी बेटियों ने न सूरत बतूल की

वो वक़्त शाम और अंधेरा इधर उधर

शिशदर हर एक रह गया मुँह देख देख कर

ज़ैनब ने जा के हुजरे में ढ़ूंडा बचश्म-ए-तर

चिल्लाईं वो कि हाय निकल जाऊँ मैं किधर

माँ मेरी क्या हुईं मैं क़ल्क़ से मलूल हूँ

मुड़ कर पुकारें आप मैं ही तो बतूल हूँ

फ़िज़्ज़ा बयान करती है उस वक़्त का ये हाल

तन ज़ार हो के बन गया था सूरत-ए-हिलाल

मातम के नील सीने पे रोने से आँखें लाल

मुँह ज़र्द होंट ख़ुश्क परेशान सर के बाल

रोती चलें मज़ार-ए-रसूल-ए-अनाम को

जिस तरह शम्म-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ हो शाम को

अंधेर फ़ातिमा के निकलने से हो गया

तूफ़ान-ए-नूह अश्कों के ढलने से हो गया

बरहम ज़माना हाथों के मलने से हो गया

आजिज़ फ़लक भी राह के चलने से हो गया

हवा कफ़न से क़ब्र में मुँह ढांपने लगी

आदम लहद में तड़पे ज़मीं काँपने लगी

जुज़ अश्क दोनों आँखों में हर शैय थी ख़ार ख़ार

गिर कर रिदा उलझती थी क़दमों से बार बार

था मातमी क़बा का गिरेबान तार तार

दिल था नहीफ़-ओ-ज़ार पे रोती थी ज़ार ज़ार

जब आह की तो चार तरफ़ बिजलियाँ गिरीं

थर्रा के याँ गिरीं कभी ग़श खा के वाँ गिरीं

क़ुदसी खड़े थे अर्श-ए-मुअल्ला के आस-पास

तस्बीह की ख़बर थी न तजलील के हवास

दोज़ख़ जुदा ख़ुरोश में मालिक जुदा उदास

ग़िलमान ओ हूर ओ जिन ओ परी पर हुजूम-ए-यास

ग़ुल था कि सब के दिल को हिलाती हैं फ़ातिमह

क़ब्र-ए-रसूल-ए-पाक पर आती हैं फ़ातिमा

रस्ते से लोग फ़िज़्ज़ा ने बढ़ कर हटा दिए

हमसाइयों ने गिरफों के पर्दे गिरा दिए

मर्दों के मुँह पे दौड़ के दामाँ उड़ा दिए

सब ने चिराग़ अपने घरों के बुझा दिए

कहती थीं फ़ातिमा के पिदर का ये शहर है

नामहरमों ने बी-बी को देखा तो क़हर है

यसरिब में वक़्त-ए-शाम ये ज़ोहरा का था अदब

दिन को फिराया बलवी में ज़ैनब को है ग़ज़ब

अल-क़िस्सा आई क़ब्र पे वो कुश्ता-ए-ताब

पर किस घड़ी कि हिलती थी क़ब्र-ए-रसूल-ए-रब

तुर्बत के गर्द फिरने से ताक़त जो घट गई

लेकर बलाएँ क़ब्र से ज़ोहरा लिपट गई

चलाई आह ओ इबिता ओ मुहमदा

नूर अल्लाह वा इबिता वा मोहम्मदा

शाहों के शाह ओ इबिता ओ मोहम्मदा

वा सैयदाह वा इबिता वा मोहम्मदा

बाबा बतूल आई है तस्लीम के लिए

उठिए यतीम बेटी की ताज़ीम के लिए

गुज़रे हैं आठ दिन की ज़ियारत नहीं हुई

इस बे-नसीब से कोई ख़िदमत नहीं हुई

मिंबर है सोना वाज़-ओ-नसीहत नहीं हुई

मस्जिद में भी नमाज़-ए-जमात नहीं हुई

हज़रत के मुँह से वहीइ-ए-ख़ुदा भी नहीं सुनी

जिबरील के परों की सदा भी नहीं सुनी

हुजरा वही है घर है वही एक तुम नहीं

तारे वही क़मर है वही एक तुम नहीं

शब है वही सहर है वही एक तुम नहीं

है है ये बे है पिदर है वही एक तुम नहीं

देते हैं सब दुआ कि शिफ़ा पाए फ़ातिमा

और फ़ातिमा ये कहती है मर जाए फ़ातिमा

तस्लीम मेरी ऐ पिदर है नामदार लो

तुर्बत पे अपनी तुम मुझे सदक़े उतार लो

क़ुर्बान तुम पे हूँ ख़बर है दिल है फ़िगार लो

मुश्ताक़ हूँ कि फ़ातिमा कह कर पुकार लो

पूछो ये तुम मिज़ाज तुम्हारा बख़ैर है

लौंडी कहे कि हाल जुदाई से ग़ैर है

दिल किस का ग़म में आप के नौहा-कुनाँ नहीं

वो कौन घर है जिस में कि आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं

आँसू वो कौन है जो मुसलसल रवाँ नहीं

उम्मत पे आप सा तो कोई मेहरबाँ नहीं

ख़ालिक़ के बाद बंदों के जो कुछ थे आप थे

बेओं के पर्दा-दार यतीमों के बाप थे

ख़्वाहाँ हर एक दम रहे उम्मत के चैन के

की महर तुम ने क़त्ल पे मेरे हसीन के

एहसाँ हैं शीयों पर नबी-ए-मशरिक़ैन के

नारे बुलंद करते हैं सब शोर-ओ-शेन के

बे-हश्र के तुम्हारी ज़यारत न होए-गी

हो-गी वो कौन आँख जो तुम पर न रोए-गी

आसाँ पिसर का दाग़ है मुश्किल पिदर का दाग़

वो कुछ दिनों का दाग़ है ये उम्र भर दाग़

ये तन-बदन का दाग़ है वो इक जिगर का दाग़

पैदा हुआ पिसर तो मिटा इस पिसर का दाग़

औलाद का बदल है पिदर का बदल नहीं

ये दर्द है कि जिस की दवा जुज़ अजल नहीं

और बाप भी वो बाप कि सर-ताज-ए-अंबिया

नूर-ए-ख़ुदा जलाल-ए-ख़ुदा रहमत-ए-ख़ुदा

रोज़-ए-अज़ल से ता-ब-अबद कल का पेशवा

बेटी पे सदक़े बेटी के बच्चों पे भी फ़िदा

क्यूँ-कर न अपनी मौत तुझे अब क़ुबूल हो

दुनिया में ऐसा बाप न हो और बतूल हो

क्या सो रहे हो क़ब्र में तन्हा जवाब दो

चिल्ला रही है आप की ज़ोहरा जवाब दो

मौला जवाब दो मरे आक़ा जवाब दो

दिल मानता नहीं मैं करूँ क्या जवाब दो

बोलो मैं सदक़े जाऊँ बहुत दिल-मलूल हूँ

बाबा बतूल हूँ मैं तुम्हारी बतूल हूँ

फिरते थे जब सफ़र से मिरे पास आते थे

लौंडी से बे-मिले कभी बाहर न जाते थे

फ़ाक़ा मिरा जो सुनते थे खाना न खाते थे

जो जो मैं नाज़ करती थी हज़रत उठाते थे

कैसी हक़ीर बाद-ए-रसूल-ए-करीम हूँ

दुर्र-ए-यतीम आगे थी अब तो यतीम हूँ

बाबा अज़ाँ बिलाल के मुँह की मुझे सुनाओ

बाबा नमाज़ी आए हैं मस्जिद में तुम भी जाओ

बाबा वसी को अपने बुला कर गले लगाओ

बाबा नवासे ढूंढते फिरते हैं मुँह दिखाओ

इक इक घड़ी पहाड़ है मुझ दिल-ए-मलूल को

बाबा कहो बुलाओ-गे किस दिन बतूल को

फिर्ती है याँ सकीना की इज़्ज़त निगाह में

ज़ोहरा नबी की क़ब्र पे थी अशक-ओ-आह में

आए जो ऊँट बेओं के मक़्तल की राह में

बे-साख़ता सकीना गिरी क़तल-गाह में

बेदाद अहल-ए-ज़ुलम ने की शोर-ओ-शेन पर

रोने दिया न बेटी को लाश-ए-हुसैन पर

अल-क़िस्सा फ़ातिमा हुई बे-होश क़ब्र पर

ज़ैनब के पास दौड़ी गई फ़िज़्ज़ा नंगे-सर

ज़ैनब ने पूछा ख़ैर तो है बोली पीट कर

जामा नबी का दो तो सिन्घाओं में नौहा-गर

हमसाईयाँ हैं गर्द हरासाँ खड़ी हुईं

बी-बी की अम्मां-जान हैं ग़श में पड़ी हुईं

नाना का ख़ास जामा नवासी ने ला दिया

फ़िज़्ज़ा ने जा के बीबी को ग़श में सुंघा दिया

ख़ुशबू ने उस की रूह को ऐसा मज़ा दिया

जामे पे बोसा फ़ातिमा ने जा-ब-जा दिया

पढ़ कर दरूद बात सुनाई वो यास की

तो बीबियाँ तड़पने लगीं आस-पास की

दिल का सुख़न है आह पुकारी वो बे-पिदर

याक़ूब ने जो सूँघा था पैराहन-ए-पिसर

यूसुफ़ के देखने की तवक़्क़ो थी किस क़दर

मेरी उम्मीद क़ता है बाबा से उम्र भर

पूछूँ कहाँ तलाश करूँ किस दैर में

यूसुफ़ तो मेरा सोता है लोगो मज़ार में

रोने लगीं ये कह के वो ख़ातून-ए-नेक-ज़ात

घर में ज़नान-ए-हाशमिया लाएँ हाथों-हाथ

काफ़िर भी रहम खाए जो देखे ये वारिदात

उम्मत का अब सुलूक सुनो फ़ातिमा के साथ

नज़रों से नूर-ए-चश्म-ए-नबी को गिरा दिया

दरवाज़ा-ए-अली-ए-दिली को गिरा दिया

आगे ना सुन सकेंगे ग़ुलामान-ए-फ़ातिमा

दर के तले बुलंद है अफ़्ग़ान-ए-फ़ातिमा

क्या वक़्त-ए-बे-कसी है में क़ुर्बान-ए-फ़ातिमा

रुकती है सांस होंटों पे है जान-ए-फ़ातिमा

मोहसिन जुदा तड़पता है पहलू में दिल जुदा

माँ मुज़्महिल जुदा है पिसर मुज़्महिल जुदा

सहमे हुए हसैन ओ हसन पास आते हैं

दरवाज़ा नन्हे हाथों से मिल कर उठाते हैं

घबराइयो न वालिदा ये कहते जाते हैं

उठता नहीं जो दर तो अली को बुलाते हैं

ज़ोहरा पुकारती थी वसी-ए-रसूल को

ऐ इबन-ए-अम कहाँ हो बचाओ बतूल को

सुन कर ये इस्तगासा-ए-ख़ातून-ए-दोसरा

यूँ दौड़े मुर्तज़ा कि गिरी दोष से अबा

दरवाज़े को उठाया तो ऐ वा-मुसीबता

पहलू शिकस्ता लाशा-ए-मोहसिन जुदा मिला

दरिया लहू के दीदा-ए-हक़-ए-बीं से बह गए

अल्लाह-रे सब्र शुक्र-ए-ख़ुदा कर के रह गए

इस पर भी ज़ालिमों ने न ख़ौफ़-ए-ख़ुदा किया

सामान-ए-क़त्ल-ए-नायब-ए-ख़ैर-उल-वरा किया

अंबोह गर्द-ए-हज़रत-ए-मुश्किल-कुशा किया

अच्छा इलाज पहलू-ए-ख़ैर-उन-निसा किया

घर से कनुंदा-ए-दर-ए-ख़ैबर को ले चले

चादर गले में बांध के हैदर को ले चले

बोला फ़लक में बंदा-ए-एहसाँ हूँ या-अली

क़ुदरत पुकारी ताबे-ए-फ़रमाँ हूँ या-अली

की अर्ज़ मौत ने मैं निगहबाँ हूँ या-अली

दिल ने कहा मैं सब्र का ख़्वाहाँ हूँ या-अली

बे-जा नहीं गले में गिरह रेसमाँ की है

होशियार या-अली है घड़ी इम्तिहाँ की है

क्या क्या गला रसन में घुटा दम ख़फ़ा हुआ

पर शुक्र-ए-हक़ में बंद न मुश्किल-कुशा हुआ

ग़ुल था ख़ुदा का शेर असीर-ए-जफ़ा हुआ

ख़ैर-उल-अमम के मरते ही है है ये क्या हुआ

रस्सी गले में है सितम-ताज़ा देखना

ईमान की किताब का शीराज़ा देखना

पहुँचा जो बज़म-ए-कुफ्र में वो दें का किबरिया

देखा नबी की क़ब्र को और आया ये पढ़ा

मूसा के आगे वरद जो हारून ने किया

निकला लरज़ के पंजा-ए-ख़ुरशीद बरमला

एजाज़ से रसूल के रौशन जहाँ हुआ

यानी लहद से दस्त-ए-मुबारक अयाँ हुआ

आई निदा अरे ये हमारा वज़ीर है

हैदर नहीं असीर पयंबर असीर है

तुम सब ग़ुलाम हो ये तुम्हारा अमीर है

क्या क़हर है कि दस्त-ए-ख़ुदा दस्तगीर है

शर करते हो बिरादर-ए-ख़ैरु-उल-वरा से तुम

क्यूँ बुत-परस्तो फिर गए आख़िर ख़ुदा से तुम

हम ने ग़दीर-ए-ख़म में किया था वसी किसे

कहती है ख़ल्क़ साहिब-ए-नाद-ए-अली किसे

मुश्किल के वक़्त ढूंडते थे सब नबी किसे

क़ुदरत है ये सिवा-ए-अली-वली किसे

अव्वल मदद से ख़ुश दिल-ए-आदम को कर दिया

फिर ग़म से तुम को तुम से जुदा ग़म को कर दिया

कअबा में पहले किस ने अज़ाँ दी है बरमहल

सोया है कौन फ़र्श पे मेरे मिरे बदल

किस बंदा का ख़ुदा के लिए है हर इक अमल

किस की अता का अक़दा हुआ हिल्ल-ए-अति से हल

तौरेत में ख़ुदा ने इनोशंतिया कहा

इंजील में जो नाम लिया ईलिया कहा

तशरीह क़ुल्ल-ए-कफ़ा की है क्या मुर्तज़ा-अली

तसरीह अनमा की है क्या मुर्तज़ा-अली

तफ़सीर ला-फ़िता की है क्या मुर्तज़ा-अली

तासीर हर दुआ की है क्या मुर्तज़ा-अली

गंजीना-ए-उलूम-ए-ख़ुदा-दाद कौन है

जिब्रील से फ़रिश्ते का उस्ताद कौन है

सब सुन रहे थे ये कि हुआ हश्र जा-ब-जा

देखा ज़नान-ए-हाशमिया हैं बरहना-पा

और उम्म-ए-सलमा ज़ौजा-ए-पैग़ंबर-ए-ख़ुदा

पहलू सँभाले फ़ातिमा का वा-मुसीबता

ज़ोहरा ख़मूश आँखों में आँसू भरे हुए

जामा रसूल-ए-पाक का मुँह पर धरे हुए

पहुंचीं क़रीब-ए-हाकिम-ए-ज़ालिम जो वो जनाब

लहजे में मुस्तफा के किया उस से ये ख़िताब

आ होश में कि साबिरों को अब नहीं है ताब

हाँ बाल खोलती हूँ उलटती हूँ मैं नक़ाब

दुनिया तबाह होगी मिरा घर तो लुट गया

बस बस बहुत गला मिरे वाली का घुट गया

काँपी ये सुन के मस्जिद-ए-पैग़ंबर-ए-ख़ुदा

दीवारें सब ज़मीं से यकायक हुईं जुदा

ताज़ीम-ए-आह-ए-फ़ातिमा उठ उठ के की अदा

खोला मुख़ालिफ़ों ने गुलू-ए-शह-हुदा

घर को रवाना सैदा-ए-फ़ाक़ा-कश हुईं

आते ही गिर पड़ीं सफ़-ए-मातम पे ग़श हुईं

क़ुरआन ले के बेटियाँ दौड़ीं बरहना-सर

मुँह पर वर्क़ वर्क़ की हुआ दी बचश्म-ए-तर

तब चश्म-ए-नीम-वा से ये बोली वो बे-पिदर

ऐ बेटियो न उंस करो मुझ से इस क़दर

रविय्यत थी जिस पिदर से वो सर पर रहा नहीं

देखो मैं घर में रहने भी पाती हूँ या नहीं

क्या क्या कहूँ मैं दुख़तर-ए-ख़ैर-उल-अमम का दर्द

पहलू का दर्द हाथ का दर्द और शिकम का दर्द

बच्चों की बे-कसी का अली के अलम का दर्द

हर इक ग़ज़ब का हादिसा हर इक सितम का दर्द

दो मातम और आह वो ग़ुर्बत बतूल की

मोहसिन का चिहल्लुम और सह-माही रसूल की

मुँह से पिदर का नाम लिया और रो दिया

क़ुरआन पढ़ के हदिया किया और रो दिया

फ़र्श-ए-नबी की देखी ज़िया और रो दिया

तकियों को सूँघा बोसा दिया और रो दिया

सर्फ़ा न आह में न बका में न बीन में

बे-ग़श हुए इफ़ाक़ा न था शोर-ओ-शेन में

आख़िर वफ़ूर-गिरिया से आजिज़ हुए अरब

हैदर के पास रोने की फ़रियाद लाए सब

की अर्ज़ फ़ातिमा से कहो ऐ वीली-ए-रब

या-सय्यदी तुम्हारी रियाया है जाँ-लब

खाने का कोई वक़्त न सोने का वक़्त है

जो वक़्त है वो आप के रोने का वक़्त है

माँ बाप ने हमारी भी दुनिया से की क़ज़ा

हम तो न ऐसा रोय न पीटे न की अज़ा

फ़रमाया मुर्तज़ा ने कि बतलाओ तो भला

तुम में से किस का बाप हुआ है रसूल सा

इल्ज़ाम कोई दे नहीं सकता बतूल को

समझाता हूँ मैं ख़ैर यतीम-ए-रसूल को

बाहर से मुर्तज़ा गए घर में झुकाए सर

मुँह ढाँपे रो रही थी अकेली वो ख़ुश-सैर

देने लगे पयाम-ए-अरब शाह-ए-बहर-ओ-बर

घबरा के बोली हाय करूँ क्या मैं नौहा-गर

क़ाबू में मौत होवे तो मरजाऊँ या-अली

बाबा का सोग ले के किधर जाऊँ या-अली

मेरी तरफ़ से अहल-ए-मदीना को दो पयाम

लोगो ख़फ़ा न हो मिरी रुख़स्त है सुब्ह-ओ-शाम

दो चार दिन तुम्हारे मोहल्ले में है क़याम

रोने की धूम हो चुकी अब काम है तमाम

दिल जिस का मुर्दा हो उसे जीने से काम क्या

बाबा सुधारे मुझ को मदीना से काम क्या

रोने में इख़्तियार नहीं बे-पिदर हूँ मैं

दिल को मिरे न तोड़ो कि ख़सता-जिगर हूँ मैं

उम्मीदवार मौत की आठों पहर हूँ मैं

गर शाम को बची तो चिराग़-ए-सहर हूँ मैं

मातम है ग़ैर का कि तुम्हारे रसूल का

पर तुम को ना-गवार है रोना बतूल का

सब के नबी का सोग है कुल के नबी का ग़म

ये भी नसीब अपना कि इल्ज़ाम पाएँ हम

ये क्या समझ के मुँह से निकाला कि रोओ कम

बे-रौनक़ी रसूल के मातम की है सितम

बे-जा तुम्हारी ये ख़फ़गी है मैं रोऊँगी

कुछ हो मिरी तो जी को लगी है मैं रोऊँगी

हैदर का इस बयान से टुकड़े हुआ जिगर

बैत-उल-हज़न बनाया बकीआ में जल्द तर

लिखा है हाथ थाम के बेटों का हर सहर

वाँ जा के रोया करती थी दिन भर वो बे-पिदर

हंगाम-ए-शाम हैदर-ए-कर्रार जाते थे

रूह-ए-नबी की दे के क़सम उन को लाते थे

इक दिन निगाह करते हैं क्या शाह-ए-ला-फ़ुता

मतबख़ है गर्म आरिद-ए-जौ है गुंधा हुआ

नहला रही हैं बच्चों को मल मल के दस्त ओ पा

फैला दिए हैं गिरते भी धो कर जुदा जुदा

पूछा कि इतने कामों का जो शुग़्ल आज है

इस वक़्त कुछ बहाल तुम्हारा मिज़ाज है

बोलीं कि आज रात को हो जाऊंगी बहाल

कल मेरे कारोबार में ख़ुद होगे तुम निढाल

ख़िदमत का मेरे बच्चों की होगा किसे ख़याल

नहला-धुला दिया कि परेशाँ थे सर के बाल

कुरते भी धोए क़ुव्वत भी कल तक का दे चली

सेहरा न देखा एक ये अरमान ले चली

पूछा अली ने तुम को ये क्यूँ कर हुआ यकीं

सिद्दीक़ा ने कहा शुदनी है ये शक नहीं

पिछले को रोते रोते जो सोई में दिल-ए-हज़ीं

देखा कि एक बाग़ में हैं शाह-ए-मुरसलीं

मोहसिन को मेरे अपने गले से लगाते हैं

बहलाते थे ना रो तिरी माँ को बुलाते हैं

मुजरे को मैं झुकी तो कहा हो के बे-क़रार

ज़ोहरा कहाँ थी तू तिरा बाबा तिरे निसार

आ जल्द ढूंढता है ये मासूम बार बार

याँ पर रहेगी चैन से मेरा है इख़्तियार

याँ ग़ासिब-ए-फ़दक न कभी आने पाएगा

याँ ताज़ियाना तुझ को न कोई लगाएगा

ये सुन के नंगे पाँव में इस बाग़ से फ्री

बस देखना था आप का दीदार आख़िरी

सहवन अगर हुई हो कुछ आज़ुर्दा-ख़ातिरी

बख़्शो मुझे कि मौत है नज़दीक अब मिरी

रो कर कहा अली ने कि हम उज़्र-ए-ख़्वाह हैं

वल्लाह बे-क़सूर हो तुम सब गवाह हैं

मासूमा से भी होती है बीबी ख़ता कभी

उस्रत का तुम ज़बाँ पे ना लाएँ गिला कभी

अच्छा लिबास मांगा ना अच्छी ग़िज़ा कभी

बीमार जब पड़ीं न तलब की दवा कभी

क्या ख़ूब तुम ने मुझ से निबाही है फ़ातिमा

क्यूँ कर न हो कि नूर-ए-इलाही है फ़ातिमा

दुनिया के माल-ओ-जाह पे तुम ने नज़र न की

फ़रमाइश एक शय की भी मुझ से मगर न की

यूँ सब्र से जहाँ में किसी ने बसर न की

फ़ाक़े किए और अपने पिदर को ख़बर न की

पहलू पे दर गिरा में हिमायत न कर सका

शर्मिंदा हूँ कि हक़-ए-रियायत न कर सका

वो बोली ये कनीज़ नवाज़ी है सर-बसर

फ़रमाइए वसीयत-ए-अव्वल पे अब नज़र

हर बे-पिदर के बाद-ए-नबी आप हैं पिदर

सबतैन तो हुज़ूर के हैं पारा-ए-जिगर

गर चाहते हो क़ब्र में ज़ोहरा के चैन को

देना न रंज मेरे हसन और हुसैन को

मग़रिब तलक बस और है माँ उन की सर पे अब

कल सुब्ह ये घिरैंगे यतीमी में है ग़ज़ब

परवाना रहियो मेरे चराग़ों पे रोज़ ओ शब

बिन माँ का जान गर कोई घड़के न बे-सबब

ये दोनों हैं सपुर्द जनाब-ए-अमीर के

जौशन हैं आप मेरे सग़ीर ओ कबीर के

वाली यतीम बच्चों का होता है दिल हुबाब

चिल्ला के उन की बात का देना न तुम जवाब

बहनों की उन की उन से सिवा होगा इज़्तिराब

दिल-जूई उन की कीजियो बे-हद-ओ-बे-हिसाब

ज़ैनब से होशियार कि नाज़ों की पाली है

और दूसरे हुसैन की ये रोने वाली है

अर्ज़-ए-दोम ये है मुझे शब को उठाइयो

और क़ब्र का निशान कई जा बनाइयो

तुर्बत में ख़ुद उतारियो और ख़ुद लटाइयो

फिर काँप कर कहा कि इलाही बचाइयो

आँखों के आगे क़ब्र की तन्हाई फिर गई

मोती की इक लड़ी थी कि आँखों से गिर गई

बोली कि या अली ये क़यामत का वक़्त है

मरने से सख़्त क़ब्र की वहशत का वक़्त है

मय्यत पे बाद-ए-दफ़न ये आफ़त का वक़्त है

इस वक़्त वारिसों की मोहब्बत का वक़्त है

हमदम नहीं रफ़ीक़ नहीं मेहरबाँ नहीं

ये वो जगह है कोई किसी का जहाँ नहीं

वो अजनबी मकाँ वो अंधेरा इधर उधर

पहले-पहल वो बस्ती से वीराने का सफ़र

ने शम्मा रौशनी के लिए ने शिगाफ़-दर

हमसाया वो कि दूसरे से एक बेख़बर

किस को कोई पुकारे कहाँ जाए क्या करे

आसान सब पे क़ब्र की मुश्किल ख़ुदा करे

अक्सर तुम्हारी शान में फ़रमाते थे पिदर

तुर्बत में अपने शीओं की लेते हैं ये ख़बर

उम्मीदवार मैं भी हूँ या शाह-बहर-ओ-बर

क़ुरआन पढ़ियो क़ब्र के पहलू में बैठ कर

मुर्दे लहद में बे-कस-ओ-बे-यार होते हैं

ज़िन्दों से उंस के ये तलब-गार होते हैं

आई निदा रसूल की बेटी में आऊँगा

होते ही दफ़न तुझ को गले से लगाऊँगा

आग़ोश में लिए हुए जन्नत मैं जाऊँगा

फ़ाक़ा के बदले मेवा-ए-तूबा ख़िलाऊँगा

महबूबा-ए-ख़ुदा-ओ-नबी तेरा नाम है

मदफ़न तिरे मुहिब्बों का दार-उस-सलाम है

नागाह महर ने किया दुनिया से इंतिक़ाल

मस्जिद में मुर्तज़ा गए महज़ूँ-ओ-ख़स्ता-हाल

हुजरे में बाप के गई ख़ातून-ए-ख़ुश-ख़िसाल

इस्मा से बोली मज़हर-ए-इसमा-ए-ज़ूलजलाल

काफ़ूर-ए-ख़ुल्द फ़ातिमा-ज़ोहरा के पास ला

पानी हमारे ग़ुसल को ला और लिबास ला

हुजरे में ग़ुसल कर के पढ़ी आख़िरी नमाज़

सजदे में सर झुका के कहे अपने दिल के राज़

आवाज़-ए-अरजई से किया हक़ ने सरफ़राज़

ज़ोहरा ने अपने पाँव किए क़िबला को दराज़

हूरों ने फिर बहिश्त में बरपा ये ग़ुल किया

पेटू क़ज़ा ने शम्मा-ए-पयंबर को ग़ुल किया

याँ सब खड़े थे हुजरे के नज़दीक बे-क़रार

कलिमा के बाद जब न सदा आई ज़ीनहार

हुजरे में पीटते हुए दौड़े सब एक बार

चिल्लाई उम्म-ए-सलमा लुटी मैं जिगर-ए-फ़िगार

अपना भी सोगवार रंडापे में कर गईं

जीती रही मैं आप जहाँ से गुज़र गईं

फिर तो हर एक कूचे में महशर बपा हुआ

अपने पराए दौड़े कि है है ये क्या हुआ

फ़िज़्ज़ा पुकारी सय्यदा का वाक़िआ हुआ

हुजरा बतूल-ए-पाक का मातम-सरा हुआ

सीने में दम क़लक़ से रुका साँस उलट गई

मुँह रखे मुँह पे मुर्दे के ज़ैनब लिपट गई

लेकर बलाएँ कहती थी बेटी निसार हो

अम्माँ मैं होल खाती हूँ तुम होशियार हो

भय्या ज़मीं पे लौटते हैं हम-कनार हो

तुम आँख खोल दो तो सभों को क़रार हो

है है ये चुपके रहने की क्या बात हो गई

नाना का फ़ातिहा न दिया रात हो गई

उठीए चिराग़-ए-क़हर नबी पर जलाइए

सूनी पड़ी है नाना की सफ़ जल्द जाइए

पहलू का दर्द कैसा है ये तो बताइए

देखूँ मैं नब्ज़ हाथ तो अपना बढ़ाइए

क्यूँ आप खोलती नहीं चशम-ए-पुर-आब को

क्या ग़श में देखती हैं रसालत-ए-मआब को

हमसाइआं हैं आप की बालीं पे बे-क़रार

और पायँती ज़नान-ए-क़ुरैशी की है क़तार

है पहलूओं में आप का कुम्बा सब अशकबार

सब पूछते हैं आप को ज़ैनब से बार बार

बी-बी कहो कहाँ का पता दूँ किधर गईं

ये तो नहीं ज़बाँ से निकलता कि मर गईं

मैं दूध बख्शवा भी न पाई कि चल बसीं

शर्बत बना के लाने न पाई कि चल बसीं

सज्जादे से उठाने न पाई कि चल बसीं

मैं बे-नसीब आने न पाई कि चल बसीं

क्या जानती थी वक़्त ये है इंतिक़ाल का

बाइस सिवा है ये मिरे रंज-ओ-मलाल का

ऐ मेरी फ़ाक़ा कश मिरी नादार वालिदा

ऐ मेरी बे-दवा मिरी बीमार वालिदा

कुंबा की आबरू मिरी सरदार वालिदा

ऐ मेरी साबिरा मिरी नाचार वालिदा

नाना की सोगवार को ताज़ा ख़िताब दो

अम्माँ जवाब दो मिरी अम्माँ जवाब दो

हमसा-ए-उज़्र के लिए डेयुढ़ी पे हैं बहम

कहते हैं आप रोईं मज़ाहम न होंगे हम

ख़ातिर हो उन की जमा निदामत हो उन की कम

मुँह ढाँप कर जो बीन करें आप एक दम

इतना तो उन से कहिए कि एहसान कीजियो

ज़ैनब जो मुझ को रोए उसे रोने दीजियो

नागाह आए रोते हुए शाह-औसिया

ग़ुसल ओ हुनूत फ़ातिमा ख़ुद हुजरे में किया

इस्तबरक़-ए-बहिश्त-ए-बरीं का कफ़न दिया

मय्यत के नूर से हुआ ताबूत पुर-ज़िया

बू-ए-कफ़न में खोल के रुख़सार-ए-फ़ातिमा

मुश्ताक़ो आओ देख लो दीदार-ए-फ़ातिमा

फिरने लगीं कनीज़ें जनाज़े के आस-पास

झुक कर बलाएँ बेटियों ने लीं ब-हाल-ए-यास

अब क्या कहूँ कि शिद्दत-ए-ग़म से है दिल उदास

नज़दीक है वो वक़्त कि सब हुईं बेहवास

घर में अली लहद में नबी थरथराते हैं

बिन-माँ के बेटे माँ के जनाज़े पर आते हैं

नन्हे से कुर्तों के हैं गिरेबान चाक चाक

गेसू खुले हैं डाले हुए हैं सरों पे ख़ाक

नज़दीक है कि वालिदा के ग़म में हूँ हलाक

जारी ज़बान पर यही नौहा है दर्द-नाक

जाती हो तुम नबी की ज़ियारत के वास्ते

अम्माँ ग़ुलाम आए हैं रुख़स्त के वास्ते

नाना जो पूछें खादिमों की ख़ैर-ओ-आफ़ियत

कहना ज़माना ख़ून का प्यासा है बे-जहत

बाबा के क़त्ल की है नुमामों में मश्वरत

नाना हमारे दिल को हो अब किस की तक़वियत

शफ़क़त का हाथ आप ने सर से उठा लिया

एक वालिदा थीं पास उन्हें भी बुला लिया

होने लगे विदा ये कह कर वो नेक-नाम

नन्हे से सर झुका के किया आख़िरी सलाम

फिर तो वो मय्यत-ए-जिगर-ए-सय्यद-उल-अनाम

थर्राई यूँ कि बंद-ए-कफ़न खुल गए तमाम

आशिक़ को बे-मिले हुए किस तरह कुल पड़े

ज़ोहरा के दोनों हाथ कफ़न से निकल पड़े

बाहें गले में प्यार से बेटों के डाल दें

और सीने से लिपट गए झुक कर वो नाज़नीं

हातिफ़ ने दी अली को निदा ऐ अमीर-ए-दीं

रोते हैं हर फ़लक पे मुलक हिलती है ज़मीं

तसकीन-ए-अर्श-ए-आज़म-ए-रब-ए-हुदा करो

बेटों को माँ की लाश से जुदा करो

मुँह चूम कर यतीमों का बोले ये मुर्तज़ा

प्यारो फ़रिश्ते रोते हैं अब माँ से हो जुदा

फ़िज़्ज़ा पुकारी बी-बी के एजाज़ पर फ़िदा

बस आशिक़-ए-हुसैन-ओ-हसन प्यार हो चुका

बाहें निकालो दफ़न में अब देर होती है

आइंदा कि रूह नहीं सैर होती है

अब नज़र दे ये मर्सिया और अर्ज़ कर दबीर

या सय्यदा तुम्हें क़सम-ए-ख़ालिक़-ए-क़दीर

बहर-ए-रसूल-ए-पाक ओ प-ए-हज़रत-ए-अमीर

तुम पर फ़िदा थी वालिदा-ए-ज़ाकिर-ए-हक़ीर

फ़रमाइए ये लुत्फ़ कि वो रुस्तगार हो

हुल्ला-ए-कफ़न हो रोज़ा-ए-रिज़वाँ मज़ार हो

(3073) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

In Hindi By Famous Poet Mirza Salaamat Ali Dabeer. is written by Mirza Salaamat Ali Dabeer. Complete Poem in Hindi by Mirza Salaamat Ali Dabeer. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.