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उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ - मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस कविता - Darsaal

उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ

उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ

सर किधर पटकूँ किधर जाऊँ इलाही क्या करूँ

वस्ल का दिन है वले आँखों के मेरे सामने

है खड़ी शब-हा-ए-हिज्राँ की स्याही क्या करूँ

तख़्ता तख़्ता हो गया तूफ़ाँ में आ कर जहाँ

तुम से ऐ यार बयाँ अपनी तबाही क्या करूँ

है तो वो दुश्मन पे महज़र देख कर ख़ून का मिरे

सोचता है इस पे में अपनी गवाही क्या करूँ

टुकड़े टुकड़े दिल हुआ जाता है पहलू में 'हवस'

ज़ब्ह करती है बुताँ की कम-निगाही क्या करूँ

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