नित जी ही जी में इश्क़ के सदमे उठाइयो
नित जी ही जी में इश्क़ के सदमे उठाइयो
शिकवे की बात मुँह पे 'हवस' तुम न लाइयो
शौक़ इन दिनों हुआ है उसे दास्तान का
यारो कोई मिरी भी कहानी सुनाइयो
रहने दे मेरी ख़ाक तू उस दर पे ऐ सबा
मुश्त-ए-ग़ुबार-ए-ख़स्ता-दिलाँ मत उठाइयो
जी को यक़ीं है हश्र में ढूँडूंगा मैं तुझे
ज़ालिम वहाँ तू मुझ से न मुखड़ा छुपाइयो
इस में ज़ियाँ है जान का सुनता है ऐ 'हवस'
ज़िन्हार बार-ए-इश्क़ न सर पर उठाइयो
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