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मैं कहा बोलना शब ग़ैर से था तुम को क्या - मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस कविता - Darsaal

मैं कहा बोलना शब ग़ैर से था तुम को क्या

मैं कहा बोलना शब ग़ैर से था तुम को क्या

मुस्कुरा कहने लगा शौक़ मिरा तुम को क्या

जो कहा मैं कि बुरे तौर निकाले तुम ने

फेर कर मुँह को लगा कहने भला तुम को क्या

शिकवा उस बुत के जफ़ा का जो किया मैं तो कहा

तुम तो दुनिया में हो इक अहल-ए-वफ़ा तुम को क्या

दर्द-ए-सर दुश्मनों के उन के हुआ रात सो मैं

जूँ ही घबरा के ये पूछा तो कहा तुम को क्या

तान कर मुँह पे दुपट्टा ब-दम-ए-सर्द कहा

तुम लगे पूछने क्यूँ हाल मिरा तुम को क्या

हर घड़ी तुम जो मलामत मुझे करते हो 'हवस'

आप मैं दाम-ए-मोहब्बत में फँसा तुम को क्या

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