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जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई - मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस कविता - Darsaal

जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई

जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई

हुआ दीवानों में जब ग़ुल बहार आई बहार आई

हुआ था मर्ग से ग़ाफ़िल मैं किस दिन जोश-ए-वहशत में

सबा क्यूँ ले के मेरे सामने मुश्त-ए-ग़ुबार आई

दिखाए रंज पीरी के अजल तेरे तग़ाफ़ुल ने

तुझे आना था पहले आह तू अंजाम कार आई

हमारे तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ के तेज़ करने को

शमीम-ए-ज़ुल्फ़ दोश-ए-बाद-ए-सरसर पर सवार आई

न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का

शब-ए-हिज्राँ हुई आख़िर तो सुब्ह-ए-इंतिज़ार आई

न कुछ ख़तरा ख़िज़ाँ का है न एहसान-ए-बहार उस पर

अदम से अपनी शाख़-ए-आरज़ू बे-बर्ग-ओ-बार आई

हमारी देखियो ग़फ़लत न समझे वाए नादानी

हमें दो दिन के बहलाने को उम्र-ए-बे-मदार आई

जो नंग-ए-इश्क़ हैं वो बुल-हवस फ़रियाद करते हैं

लब-ए-ज़ख़्म-ए-'हवस' से कब सदा-ए-ज़ींहार आई

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