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वाइज़ पिए हुए हूँ ख़ुदा के लिए न छेड़ - मिर्ज़ा मायल देहलवी कविता - Darsaal

वाइज़ पिए हुए हूँ ख़ुदा के लिए न छेड़

वाइज़ पिए हुए हूँ ख़ुदा के लिए न छेड़

धड़का मिटा हुआ है अज़ाब ओ सवाब का

या-रब उन्हें बहिश्त में जाना न हो नसीब

जो लुत्फ़ उठा चुके हैं शब-ए-माहताब का

क्या क्या बिगड़ रहे हैं वो बन बन के बज़्म में

आशोब-ए-रोज़गार है आलम इताब का

फिर चाहता है दिल कि वही ताक-झाँक हो

फड़ ढूँढता हूँ लुत्फ़ सवाल ओ जवाब का

ज़ाहिद को बादा-ख़्वारी का चसका लगा दिया

ये काम उम्र भर में हुआ है सवाब का

शोख़ी तो ये है बज़्म में बैठे हैं इस तरह

गोया खिंचा हुआ है मुरक़्क़ा हिजाब का

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