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फिर आ गई इक बुत पे तबीअत को हुआ क्या - मिर्ज़ा मायल देहलवी कविता - Darsaal

फिर आ गई इक बुत पे तबीअत को हुआ क्या

फिर आ गई इक बुत पे तबीअत को हुआ क्या

टलती ही नहीं सर से मुसीबत को हुआ क्या

महरूम फिर आया दर-ए-मय-ख़ाना से वाइज़

रिन्दान-ए-क़दह-ख़्वार की हिम्मत को हुआ क्या

मक़्बूल-ए-दुआ हो न असर आह-ओ-फ़ुग़ाँ में

इस दौर में तासीर-ए-मोहब्बत को हुआ क्या

इस हुस्न-ओ-लताफ़त पे क्या संग-दिल ऐसा

हैरत में हूँ अल्लाह की हिकमत को हुआ क्या

जागे तो कोई अंजुमन-ए-ग़ैर में शब भर

और छाई मिरे मुँह पे नदामत को हुआ क्या

दानिस्ता नक़ाब उल्टे हुए हैं सर-ए-बाज़ार

और उस पे ये कहते हैं कि ख़िल्क़त को हुआ क्या

लो हम तो चले कौसर ओ तसनीम पे ज़ाहिद

तुम यूँही कहे जाओ कि रहमत को हुआ क्या

'माइल' नहीं क्या और ज़माने में इलाही

मुझ पर ही उतरती है ये आफ़त को हुआ क्या

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