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बातें हैं वाइज़ों की अज़ाब ओ सवाब क्या - मिर्ज़ा मायल देहलवी कविता - Darsaal

बातें हैं वाइज़ों की अज़ाब ओ सवाब क्या

बातें हैं वाइज़ों की अज़ाब ओ सवाब क्या

दो दिन की ज़िंदगी में हिसाब-ओ-किताब क्या

चाही वफ़ा-ए-वादा तो पाया जवाब क्या

हाँ कहिए तो ये आप ने देखा है ख़्वाब क्या

दिल में ग़ज़ब के जोश हैं तौबा की ख़ैर हो

करती है देखिए ये शब-ए-माहताब क्या

ये सब सही कि ज़लज़ला है ता-फ़लक मगर

शोख़ी तो अपनी देख मिरा इज़्तिराब क्या

उस ने तो जो लिख्खा सो लिखा पर ग़ज़ब ये है

इक एक पूछता है कि आया जवाब क्या

अच्छा गुमान ओ वहम हमारे ग़लत सही

कहिए तो कहती है निगह-ए-पुर-हिजाब क्या

ऐ हम-नशीं भला वो अगर सुन के हाल-ए-दिल

कह दें कि सब ग़लत है फिर इस का जवाब क्या

करते हैं लोग वाइज़ ओ 'माइल' पे तअन क्यूँ

पीता नहीं जहान में कोई शराब क्या

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