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सुब्ह-दम उठ कर तिरा पहलू से जाना याद है - मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता - Darsaal

सुब्ह-दम उठ कर तिरा पहलू से जाना याद है

सुब्ह-दम उठ कर तिरा पहलू से जाना याद है

लोटना दिल का जिगर का फड़फड़ाना याद है

यार था पहलू में शीशे की परी थी सामने

क्यूँ दिल-ए-नालाँ तुझे वो भी ज़माना याद है

सुन के अहवाल-ए-मोहब्बत को मिरा बोला वो शोख़

जान देने का तुझे अच्छा बहाना याद है

लोट था दिल क़ामत-ए-दिलदार पर मुद्दत हुई

नख़्ल-ए-तूबा पर था अपना आशियाना याद है

कौन देखे ख़ंदा-ए-गुल की तरफ़ ऐ अंदलीब

एक मुद्दत से किसी का मुस्कुराना याद है

क्या दिखाता है फ़लक अब्र-ए-सियह में रू-ए-माह

हम को बालों में किसी का मुँह छुपाना याद है

हो मुक़ाबिल नाला-ए-दर्द-ए-दिल-ए-उश्शाक़ के

बाग़बाँ बुलबुल को ऐसा भी तराना याद है

हिज्र की शब नींद आए आशिक़-ए-बीमार को

'मुंतही' तुझ को कोई ऐसा फ़साना याद है

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