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रह गए अश्कों में लख़्त-ए-जिगर आते आते - मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता - Darsaal

रह गए अश्कों में लख़्त-ए-जिगर आते आते

रह गए अश्कों में लख़्त-ए-जिगर आते आते

रुक गए बहर से लाल-ओ-गुहर आते आते

थम गए क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर आते आते

रुक गए मुजमर-ए-दिल से शरर आते आते

होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ

बंद क्यूँ हो गया ख़ून-ए-जिगर आते आते

थम गए अश्क मिरे आँख से ढलते ढलते

रह गए चश्म-ए-सदफ़ से गुहर आते आते

रह गया कहने पे ग़म्माज़ों के सुन सुन के मिरी

फिर गया यार मिरा राह पर आते आते

दे दिया नक़्द-ए-दिल उस बुत को बग़ैर अज़ जाने

हो गया राह में कैसा ज़रर आते आते

देखते देखते देखेंगे मिरे जौहर-ए-तब्अ

आएँगे आएँगे अहल-ए-नज़र आते आते

क्या भरा ज़ंग-ए-कुदूरत से ये आईना-दिल

जो नज़र आए न वो फिर नज़र आते आते

गर्दिश-ए-चश्म ने किस को तह-ओ-बाला न किया

हो गए ज़ेर-ओ-ज़बर राह पर आते आते

अश्क-ए-ख़ूनी नहीं आते हैं जो आँखों से तिरी

क्यूँ रुकी 'मुंतही' दिल की ख़बर आते आते

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