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नफ़्स-ए-सग-ए-पलीद को गर अपने मारिए - मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता - Darsaal

नफ़्स-ए-सग-ए-पलीद को गर अपने मारिए

नफ़्स-ए-सग-ए-पलीद को गर अपने मारिए

मानिंद-ए-शेर दश्त-ए-जहाँ में डकारिए

उस गुल को जोश-ए-गुल में ये कह कर उभारिए

गुलशन में अंदलीब को चल कर पुकारिए

फिर मुर्ग़-ए-दिल को फाँसिए फिर जाल मारिए

फिर हो सके तो आप से गेसू सँवारिए

पीरी में कैफ़-ए-इश्क़ से तौबा तो कीजिए

मंज़िल रही है थोड़ी सी हिम्मत न हारिए

गिर्दाब-ए-बहर-ए-इश्क़ के चक्कर हैं रात दिन

कौन आश्ना-ए-हाल है किस को पुकारिए

दिल दे के जौर-ओ-ज़ुल्म का शिकवा न कीजिए

दो दिन की ज़िंदगी किसी ढब से गुज़ारिए

अहल-ए-हवस की दहर में मिट्टी ख़राब है

गलियों में ख़ाक छान रही हैं न्यारिये

मानिंद-ए-ज़ुल्फ़ ग़ैर को क्यूँ सर चढ़ाइए

आँखों से शक्ल-ए-अश्क के इस को उतारिए

पैदा करें असर जो दुर-ए-अश्क नासेहो

उन मोतियों पे हँस को सौ बार वारिए

जुज़ मेरे दाल आप की गलती नहीं कहीं

यूँ मुँह से जितनी चाहिए शेख़ी बघारिए

नाला जो ज़ेर-ए-तेग़ किया मैं ने जिस घड़ी

बोले कि एक दम के लिए दम न मारिए

तौबा शराब-ए-इश्क़ से किस तरह कीजिए

क्यूँकर ये जिन चढ़ा हुआ सर से उतारिए

क्या क्या न दोस्त अपने मियान-ए-अदम गए

किस को तलाश कीजिए किस को पुकारिए

उस बुत के बहर-ए-हुस्न में दिल को डुबोइए

इस कश्ती-ए-हयात को यूँ पार उतारिए

मंज़ूर हो जो राहत-ए-कौनैन 'मुंतही'

हाथों को खीच लीजिए पाँव पसारिए

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