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मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो - मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता - Darsaal

मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो

मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो

मसनद हो कि इस में बोरिया हो

जब क़ाबिल-ए-दीद दिल-रुबा हो

अल्लाह करे कि बा-वफ़ा हो

भेजा नहीं ख़त-ए-शौक़ कब से

मालूम हुआ कि तुम ख़फ़ा हो

बे-ताबी-ए-दिल अगर दिखाऊँ

कोई न किसी का मुब्तला हो

मरता है ज़र पे अहल-ए-दुनिया

नामर्द को कब ख़्वाहिश-ए-तिला हो

मिट्टी कर दे जो आप को तो

नज़रों में ख़ाक कीमिया हो

आई है फ़स्ल-ए-गुल चमन में

ऐ होश-ओ-ख़िरद चलो हवा हो

क्या मुझे दर-ब-दर फिराया

ऐ ख़्वाहिश-ए-दिल तिरा बुरा हो

दिखलाई तू ने यार की शक्ल

ऐ जज़्बा-ए-दिल तिरा भला हो

लिपटो मुझे आ के हिज्र की शब

ऐ गेसू-ए-यार अगर बला हो

ऐ 'मुंतही' बज़्म-ए-यार का हाल

क्या जानिए बा'द मेरे क्या हो

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