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हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है - मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता - Darsaal

हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है

हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है

अगर बग़ल में दिल-ए-दाग़-दार बाक़ी है

तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है

हवा के दम से ये मुश्त-ए-ग़ुबार बाक़ी है

बग़ैर रूह-ए-रवाँ जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है

निकल गई है सवारी ग़ुबार बाक़ी है

बहार में तुझे नाले सुनाऊँगा बुलबुल

अगर ये ज़िंदगी-ए-मुस्तआ'र बाक़ी है

कहूँगा यार से इक रोज़ हाथ फैला के

मुझे भी हसरत-ए-बोस-ओ-कनार बाक़ी है

जहाँ को चश्म-ए-हक़ीक़त से देख ओ ग़ाफ़िल

खुली है आँख अभी इख़्तियार बाक़ी है

उम्मीद है हमें फ़र्दा हो या पस-फ़र्दा

ज़रूर होएगी सोहबत वो यार बाक़ी है

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