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फ़ुग़ान-ओ-आह है हर-दम पुकार रखता है - मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता - Darsaal

फ़ुग़ान-ओ-आह है हर-दम पुकार रखता है

फ़ुग़ान-ओ-आह है हर-दम पुकार रखता है

ग़ज़ब में जान दिल-ए-बे-क़रार रखता है

गुल-ए-चमन न दुर-ए-शाहवार रखता है

भरा भरा जो बदन मेरा यार रखता है

लतीफ़ रूह की मानिंद जिस्म है किस का

पियादा कौन वक़ार-ए-सवार रखता है

जुदा जुदा है हसीनान-ए-दहर का अंदाज़

हर एक तरह की हर गुल बहार रखता है

फ़रेब-ए-हुस्न से अल्लाह आदमी को बचा

चले ये पेच तो रुस्तम को मार रखता है

कमाल-ए-इश्क़ को पाता हूँ ख़ाकसारी में

तरफ़ नशेब के दरिया गुज़ार रखता है

बहार आई है बिंत-उल-इनब पे जोबन है

गिरह में दाम कोई बादा-ख़्वार रखता है

सुना है जब से कि हैं दफ़न उस में आशिक़-ए-ज़ार

क़दम ज़मीं पे नहीं वो निगार रखता है

हर एक शीशा-ए-साअ'त फ़लक को कहता है

कि 'मुंतही' से सरासर ग़ुबार रखता है

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