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बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव - मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता - Darsaal

बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव

बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव

तेरी सूरत के न देखे प्यारे प्यारे हाथ-पाँव

बहर-ए-उल्फ़त में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव

लग रहे मानिंद-ए-ख़स आख़िर किनारे हाथ-पाँव

आशिक़ मू-ए-कमर की ले ख़बर ओ बे-ख़बर

सूख कर तिनका हुए हैं उस के सारे हाथ-पाँव

मेरी ख़िदमत से निहायत ख़ुश हुआ वो बद-मिज़ाज

वस्ल की शब काम आए अपने बारे हाथ-पाँव

बहर-ए-हस्ती में मिला हम को दुर-ए-मक़्सद न हैफ़

मौज के मानिंद क्या क्या हम ने मारे हाथ-पाँव

वक़्त-ए-ज़ब्ह बोला ये क़ातिल आशिक़-ए-नाद-शाद से

टुकड़े कर डाला कभी तू ने जो मारे हाथ-पाँव

खेल रहता है तवक्कुल पर मिरी औक़ात का

चलते-फिरते हैं हमारे बे-सहारे हाथ-पाँव

तीखी तीखी उन की चितवन बाँकी बाँकी उन की चाल

भोली भोली उन की सूरत प्यारे प्यारे हाथ-पाँव

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