मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
नाम | मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही |
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अंग्रेज़ी नाम | Mirza Maseeta Beg Muntahi |
यूँ इंतिज़ार-ए-यार में हम उम्र भर रहे
उस बुत को छोड़ कर हरम-ओ-दैर पर मिटे
उमीद है हमें फ़र्दा हो या पस-ए-फ़र्दा
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
तोहमत-ए-जुर्म-ओ-ख़ता हिर्स-ओ-हवा ग़फ़लत-ए-दिल
तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
तारिक-ए-दुनिया है जब से 'मुंतही'
सिखला रहा हूँ दिल को मोहब्बत के रंग-ढंग
सदा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे नहीं आती
पीरी हुई शबाब से उतरा झटक गया
फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब
लतीफ़ रूह के मानिंद जिस्म है किस का
ख़ुद रहम कीजिए दिल-ए-उम्मीद-वार पर
ख़याल उस सफ़-ए-मिज़्गाँ का दिल में आएगा
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
काबा-ओ-दैर एक समझते हैं रिंद-ए-पाक
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
जिधर को मिरी चश्म-ए-तर जाएगी
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
है ख़ुशी अपनी वही जो कुछ ख़ुशी है आप की
है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
दुनिया का माल मुफ़्त में चखने के वास्ते
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक