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गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को अपने क़रार है - मिर्ज़ा हुसामुद्दीन हैदर हुसामी कविता - Darsaal

गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को अपने क़रार है

गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को अपने क़रार है

करूँ ग़म सितम का मैं क्या बयाँ मिरा ग़म से सीना फ़िगार है

वले शहर-ए-देहली ये था चमन कि था सब तरह का यहाँ अमन

वो ख़िताब इस का तो मिट गया फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है

ये रेआ'या हिन्द तबह हुई कहूँ क्या जो उन पे जफ़ा हुई

जिसे देखा हाकिम-ए-वक़्त ने कहा ये तो क़ाबिल-ए-दार है

शब-ओ-रोज़ फूलों में जो तुलें वो यूँ ख़ार-ए-ग़म से फ़िगार हूँ

मिले तौक़ क़ैद में जब उन्हें कहें बदले गुल के ये हार है

जो सुलूक औरों से करते थे वही अब हैं कितने ज़लील-ओ-ख़्वार

वो हैं तंग चर्ख़ के जौर से रहा तन पे उन के न तार है

ये ज़माना है वो बुरा फ़लक चलो बच के सब से अलग अलग

न रफ़ीक़ कोई किसी का याँ न किसी का कोई भी यार है

क्या 'हुसामी' डर तुझे हश्र का जो ख़ुदा रखे तुझे बरमला

तुझे है वसीला रसूल का वही तेरा हामी-ए-कार है

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