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नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है - मिर्ज़ा हादी रुस्वा कविता - Darsaal

नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है

नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है

दर्द थमता है तो बे-दर्द ख़फ़ा होता है

फिर नज़र झेंपती है आँख झुकी जाती है

देखिए देखिए फिर तीर ख़ता होता है

इश्क़ में हसरत-ए-दिल का तो निकलना कैसा

दम निकलने में भी कम-बख़्त मज़ा होता है

हाल-ए-दिल उन से न कहता था हमीं चूक गए

अब कोई बात बनाएँ भी तो क्या होता है

आह में कुछ भी असर हो तो शरर-बार कहूँ

वर्ना शो'ला भी हक़ीक़त में हवा होता है

हिज्र में नाला-ओ-फ़रियाद से बाज़ आ 'रुसवा'

ऐसी बातों से वो बेदर्द ख़फ़ा होता है

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