क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ