फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब
मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी