हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा