बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना