किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना