बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए