गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब'