अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
फिर इस अंदाज़ से बहार आई
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है