ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ