कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहत-ए-दिल का
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए
तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
चाक की ख़्वाहिश अगर वहशत ब-उर्यानी करे
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं