काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं