कोई उम्मीद बर नहीं आती
या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे